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तू जिंदगी को जी, उसे समझने की कोशिश न कर ईश्वर ने जब इंसान की रचना की तो उसे किसी बंधनों में नहीं बांधा और न ही उसे हर चीज की आजादी दी। उसे जिससे अच्छा अनुभव हुआ, उसने उसे सही मान लिया और जिससे कड़वा उसे गलत। इसी अनुसार इंसान ने अपनी जरूरतें पहचानी और उसे पाने के लिए एक सीमा तय की जिसमें रह कर वह अपना जीवनयापन करने लगा। लेकिन आज के समय में इंसान ठीक वैसा ही प्राणी बन गया जैसा कि वो आदिकाल में धरती पर आया था। न ही उसे सही की पहचान है और न ही गलत की, शायद इसलिए की उसने अपनी कोई सीमा ही नहीं तय की। आज वो जिंदगी जीने के लिए नहीं जी रहा है, बल्कि वक्त काटने के लिए जी रहा है। शायद मेरी इन बातों से बहुत लोग सहमत न हो पर सच्चाई तो यही है। शांत मन से सोचिए जरा ! क्या हम वाकई अपनी खुशी के लिए जी रहें हैं ? क्या हम वो सब कुछ कर पाते हैं जो हमें अच्छा लगता है? जवाब बाहर से तो हां होगा लेकिन मन कहेगा, " नहीं कर पाते हैं।'' पता है, ये सारे मसले हमारे बनाए हुए हैं क्योंकि हम जैसे हैं वैसे नहीं दिखना चाहते। जैसे दूसरे हमें देखना चाहते हैं वैसा बनने की कोशिश में हम भटकते रहते